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शब-ए-ज़ुल्मत | शाही शायरी
shab-e-zulmat

नज़्म

शब-ए-ज़ुल्मत

अख़लाक़ अहमद आहन

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हिज्र की रात गुज़रती ही नहीं
कब तलक बज़्म पे तारीकी रहे

कब तलक शूमी क़िस्मत का गला
कब तलक दर्द के बढ़ने की फ़ुग़ाँ

कब तलक बे-कसी का शिकवा रहे
कब तलक बेबसी का नाला रहे

कब तलक होंगी रवाँ हालतें ये
कब तलक छाई रहें ज़ुल्मतें ये

नूर उठता है मगर क्या कीजिए
ज़ुल्म की काली घटा चार-सू है