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शाम | शाही शायरी
sham

नज़्म

शाम

अहमद हमेश

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दिन की गहरी धूप ने
जो जो घाव दिए हैं

इन में मेरे दर्द का कोई भेद न ढूँडो
मेरे दुख तो अन-देखे हैं

देखो
इस दीवार के पीछे

बरसों की नफ़रत से घायल
थकी हुई अन-जानी यादें

पतियाँ बन के बिखर गई हैं
दूर आकाश के उस कोने में

एक मैली चादर में लिपटी शाम खड़ी है
आओ चलें उस शाम की चादर में छुप जाएँ

शाम जो हम दुखियों की माँ है