अल्लामा-इक़बाल के हुज़ूर
फ़ितरत का कारोबार तो चलता है आज भी
महताब बर्ग-ए-गुल पे फिसलता है आज भी
क़ुदरत ने हम को दौलत-ए-दुनिया भी कम न दी
सय्याल ज़र-ए-ज़मीं से उबलता है आज भी
दुनिया में रौशनी भी हमारे ही दम से है
मशरिक़ से आफ़्ताब निकलता है आज भी
पर मंज़र-ए-ग़ुरूब बहुत दिल-नशीं है क्यूँ
मग़रिब की शाम अपनी सहर से हसीं है क्यूँ
इस कश्मकश में दौलत-ए-उक़्बा भी छिन गई
ज़ौक़-ए-जुनूँ से वुसअ'त-ए-सहरा भी छिन गई
सहरा-ए-आरज़ू में तग-ओ-दौ नहीं रही
पा-ए-तलब से वादी-ए-सीना भी छिन गई
तू ने तो क़र्तबा में नमाज़ें भी कीं अदा
अपनी जबीं से मस्जिद-ए-अक़्सा भी छिन गई
कोहसार रौंद डाले गए खेत हो गए
चट्टान हम ज़रूर थे अब रेत हो गए
मंज़िल पे आ के लुट गए हम रहबरों के साथ
बीमार भी पड़े हैं तो चारागरों के साथ
ग़ुर्बत-कदे में काश उतर आए कहकशाँ
आँखें फ़लक की सम्त हैं बोझल सरों के साथ
उड़ना मुहाल लौट के आना भी है वबाल
ज़ख़्मी दुआ ख़ला में है टूटे परों के साथ
इस रज़्म-ए-ख़ैर-ओ-शर में हुआ कौन सुरख़-रू
ज़र्ब-ए-कलीम कुंद है फ़िरऔन सुर्ख़-रू
नज़्म
शाइर-ए-मशरिक़ की अर्ज़-दाश्त
ज़हीर सिद्दीक़ी