हिज्र के बे-सदा जज़ीरे पर
कुंज-ए-तन्हाई में कोई लड़की
ख़ाल-ओ-ख़द पर लगा के आस का रंग
चश्म-ओ-लब पर सजा के दिल की उमंग
आँखों आँखों में मुस्कुराती है
शाम की सुरमई उदासी में
अपनी तस्वीर ख़ुद बनाती है
अध-खुले होंट नीम-वा आँखें
बे-नवा होंट बे-सदा आँखें
ऐसी ख़ामोशी ऐसी तन्हाई
ख़ुद तमाशा है ख़ुद तमाशाई
ख़ुद ही तस्वीर ख़ुद मुसव्विर है
ख़ुद ग़ज़ल और ख़ुद ही शायर है
सोचती है कि जिस के हिज्र में मैं
शम्अ' सी सुब्ह-ओ-शाम जलती हूँ
मोम सी रात दिन पिघलती हूँ
काश वो मेरी रौशनी देखे
मेरी आँखों की अन-कही समझे
मेरे तन-मन की बेबसी देखे
जितनी शिद्दत से ख़ुद को देखती हूँ
काश वो भी मुझे कभी देखे
नज़्म
सेल्फ़ी
रहमान फ़ारिस