इक मौसम मिरे दिल के अंदर
इक मौसम मिरे बाहर
इक रस्ता मिरे पीछे भागे
इक रस्ता मिरे आगे
बीच में चुप चुप खड़ी हूँ जैसे
बूझी हुई बुझारत
किस को दोश दूँ, जाने मुझ को
किस ने किया अकारत
आईना देखूँ, बाल सँवारुँ
लब पे हँसी सजाऊँ
गला-सड़ा वही गोश्त कि जिस पर
बैठी रंग चढ़ाऊँ
जाने कितनी बर्फ़ पिघल गई
बह गया कितना पानी
किस नदिया में ढूँडूँ बचपन
किस दरिया में जवानी
रात आए मिरी हड्डियाँ जागें
दिन जागे मैं सोऊँ
अपने उजाड़ बदन से लग कर
कभी हँसूँ, कभी रोऊँ
एक भयानक सपना: आग में लिपटी जलती जाऊँ
चोली में अड़से सिक्कों के संग पिघलती जाऊँ
इक मौसम मिरे दिल के अंदर
इक मौसम मिरे बाहर
इक रस्ता मिरे पीछे भागे
इक रस्ता मिरे आगे
रस्ते बीच मैं खड़ी अकेली
पिया न संग सहेली
क्या जाने मुझ जन्म-जली ने
क्या अपराध किया है
आख़िर क्यूँ दुनिया का मैं ने सारा ज़हर पिया है
सारी उम्र न जाने अपने बदन में किसे जिया है
मेरे साथ ज़माने!
तू ने अच्छा नहीं किया है
दूर खड़े मिरे आँगन द्वारे
पल पल पास बुलाएँ
कहो हवाओं से अब, उन को
दूर बहुत ही दूर कहीं ले जाएँ
झूट की ये काली दीवारें
झूट का फ़र्श और छत है
झूट का बिस्तर झूट के साथी
झूट की हर संगत है
झूट बिछाऊँ, झूट लपेटूँ
झूट उतारूँ, पहनूँ
झूट पहन कर जिस्म के वीराने में दौड़ती जाऊँ
सच के जुगनू बोल कहाँ है
कब से तुझे बुलाऊँ
इस लम्बी तारीक सड़क पर कब तक चलती जाऊँ
क्यूँ नहीं ज़ेहन की दीवारों से
टकराऊँ, मर जाऊँ
शम्अ सरेखी पिघल रही हूँ
ओझल कभी उजागर
इक मौसम मिरे दिल के अंदर
इक मौसम मिरे बाहर
मुझ से मिलने कौन आए अब इन तन्हा राहों पर
बोटी बोटी बट गई मेरी रौशन चौराहों पर
इस गहरे सन्नाटे में किस को आवाज़ लगाऊँ
कौन आएगा मदद को मेरी
क्या चीख़ों चिल्लाऊँ
अपने मुर्दा गोश्त की चादर
ओढ़ के चुप हो जाऊँ
और अचानक नींदों की दलदल में गुम हो जाऊँ
किसी के हाथ न आऊँ
ख़ुद को मैं ख़ुद ढूँडने निकलूँ
लेकिन कहीं न पाऊँ
नज़्म
सौगंधी
कुमार पाशी