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सरसराहाट | शाही शायरी
sarsarahaT

नज़्म

सरसराहाट

मीराजी

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यहाँ इन सिलवटों पर हाथ रख दूँ
ये लहरें हैं बही जाती हैं और मुझ को बहाती हैं

ये मौज-ए-बादा हैं साग़र की ख़्वाबीदा-फ़ज़ा दिल में
अचानक जाग उठती है

हक़ीक़त के जहाँ से कोई इस दुनिया में दर आए
तो उस के होंट मुतबस्सिम हों शायद क़हक़हा उठ कर

मिरे दिल को जकड़ ले अपने हाथों से
मगर मैं ये समझता हूँ कि ये लहरें अभी तक साहिली मंज़र से ना-वाक़िफ़ हैं यूँही इक बहाना कर रही हैं इक बहाना किस को कहते हैं

बहाने ही बहाने हैं
बढ़ा कर रख दिया लहरों पे मैं ने हाथ मिरा हाथ इक कश्ती की मानिंद एक मौज-ए-तुंद

की उफ़्ताद के जल्वे को मिरे सामने ला कर हुआ है गुम
ये सब मौज-ए-तख़य्युल की रवानी थी

मगर मैं सोचता हूँ बात जो कहने की थी मैं ने न क्यूँ पहले ही कह दी वक़्त का
बे-फ़ाएदा मसरफ़

हर इक पोशीदा मंज़र को
उगल डालेगा इक लम्हा वो आएगा

कि जब इस बात के सुनने पे सुनने वाले सोचेंगे
बहाना क्या था सिलवट क्या थी मौज-ए-बादा भी क्या थी

मगर शब की अँधेरी ख़ल्वत-ए-गुमनाम के पर्दे में खो कर उन को ये मालूम हो जाएगा इक पल में
और इक लज़्ज़त के कैफ़-ए-मुख़्तसर में खो के वो बे-साख़्ता ये बात कह उट्ठेंगे क्या

मुझ को इजाज़त है
यहाँ इन सिलवटों पर हाथ रख दूँ ये झिजक कैसी

ये लहरें हैं इन्हें निस्बत है काली रात के ग़मनाक दरिया से
जो बहता ही चला जाता है रुकता ही नहीं पल को

जिसे कुछ भी ग़रज़ इस से नहीं मैं हाथ रक्खूँ या झिजक उस हाथ को मेरे
कलेजे से लगा दे और मैं सो जाऊँ इन लहरों के बिस्तर में

कलेजे से लगा दे और मैं सो जाऊँ इन लहरों के बिस्तर में