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सर-गुज़िश्त-ए-आदम | शाही शायरी
Sar-guzisht-e-adam

नज़्म

सर-गुज़िश्त-ए-आदम

अल्लामा इक़बाल

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सुने कोई मिरी ग़ुर्बत की दास्ताँ मुझ से
भुलाया क़िस्सा-ए-पैमान-ए-अव्वलीं में ने

लगी न मेरी तबीअत रियाज़-ए-जन्नत में
पिया शुऊर का जब जाम-ए-आतिशीं मैं ने

रही हक़ीक़त-ए-आलम की जुस्तुजू मुझ को
दिखाया ओज-ए-ख़याल-ए-फ़लक-नशीं मैं ने

मिला मिज़ाज-ए-तग़य्युर-पसंद कुछ ऐसा
किया क़रार न ज़ेर-ए-फ़लक कहीं मैं ने

निकाला काबे से पत्थर की मूरतों को कभी
कभी बुतों को बनाया हरम-नशीं मैं ने

कभी मैं ज़ौक़-ए-तकल्लुम में तूर पर पहुँचा
छुपाया नूर-ए-अज़ले ज़ेर-ए-आस्तीं मैं ने

कभी सलीब पे अपनों ने मुझ को लटकाया
किया फ़लक को सफ़र छोड़ कर ज़मीं मैं ने

कभी मैं ग़ार-ए-हीरा में छुपा रहा बरसों
दिया जहाँ को कभी जाम-ए-आख़िरीं मैं ने

सुनाया हिन्द में आ कर सुरूद-ए-रब्बानी
पसंद की कभी यूनाँ की सरज़मीं मैं ने

दयार-ए-हिन्द ने जिस दम मिरी सदा न सुनी
बसाया ख़ित्ता-ए-जापान ओ मुल्क-ए-चीं मैं ने

बनाया ज़र्रों की तरकीब से कभी आलम
ख़िलाफ़-ए-मअ'नी-ए-तालीम-ए-अहल-ए-दीं मैं ने

लहू से लाल किया सैकड़ों ज़मीनों को
जहाँ मैं छेड़ के पैकार-ए-अक़्ल-ओ-दीं मैं ने

समझ में आई हक़ीक़त न जब सितारों की
इसी ख़याल में रातें गुज़ार दीं मैं ने

डरा सकीं न कलीसा की मुझ को तलवारें
सिखाया मसअला-ए-गर्दिश-ए-ज़मीं मैं ने

कशिश का राज़ हुवैदा किया ज़माने पर
लगा के आईना-ए-अक़्ल-ए-दूर-बीं मैं ने

किया असीर शुआओं को बर्क़-ए-मुज़्तर को
बना दी ग़ैरत-ए-जन्नत ये सरज़मीं मैं ने

मगर ख़बर न मिली आह राज़-ए-हस्ती की
किया ख़िरद से जहाँ को तह-ए-नगीं मैं ने

हुई जो चश्म-ए-मज़ाहिर-परस्त वा आख़िर
तो पाया ख़ाना-ए-दिल में उसे मकीं मैं ने