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सर-ए-तूर | शाही शायरी
sar-e-tur

नज़्म

सर-ए-तूर

अली सरदार जाफ़री

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दिल को बे-ताब रखती है इक आरज़ू
कम है ये वुसअत-ए-आलम-ए-रंग-ओ-बू

ले चली है किधर फिर नई जुस्तुजू
ता-ब हद्द-ए-नज़र उड़ के जाते हैं हम

वो जो हाइल थे राहों में शम्स ओ क़मर
हम-सफ़र उन को अपना बनाते हैं हम

है ज़मीं पर्दा-ए-लाला-ओ-नस्तरन
आसमाँ पर्दा-ए-कहकशाँ है अभी

राज़-ए-फ़ितरत हुआ लाख हम पर अयाँ
राज़-ए-फ़ितरत निहाँ का निहाँ है अभी

जिस की सदियों उधर हम ने की इब्तिदा
ना-तमाम अपनी वो दास्ताँ है अभी

मंज़िलें उड़ गईं बन के गर्द-ए-सफ़र
रहगुज़ारों ही में कारवाँ है अभी

पी के नाकामियों की शराब-ए-कुहन
अपना ज़ौक़-ए-तजस्सुस जवाँ है अभी

हाथ काटे गए जुरअत-ए-शौक़ पर
ख़ूँ-चकाँ हो के वो गुल-फ़िशाँ हो गए

हैरतों ने लगाई जो मोहर-ए-सुकूत
लब ख़मोशी में जादू बयाँ हो गए

रास्ते में जो कोहसार आए तो हम
ऐसे तड़पे कि सैल-ए-रवाँ हो गए

हैं अज़ल से ज़मीं के कुरे पर अमीर
हो के महदूद हम बे-कराँ हो गए

ज़ौक़-ए-परवाज़ भी दिल की इक जस्त है
ख़ाक से ज़ीनत-ए-आसमाँ हो गए

अक़्ल-ए-चालाक ने दी है आ कर ख़बर
इक शबिस्ताँ है ऐवान-ए-महताब में

मुंतज़िर हैं निगारान-ए-आतिश-बदन
जगमगाती फ़ज़ाओं की मेहराब में

कितने दिलकश हसीं ख़्वाब बेदार हैं
माह ओ मिर्रीख़ की चश्म-ए-बे-ख़्वाब में

खींच फिर ज़ुल्फ़-ए-माशूक़ा-ए-नीलगूँ
ले ले शोले को फिर दस्त-ए-बेताब में

मुज़्दा हो मह-जबीनान--ए-अफ़्लाक को
बज़्म-ए-गीती का साहब नज़र आ गया

तहनियत हुस्न को बे-नक़ाबी की दो
दीदा-वर आ गया पर्दा-दार आ गया

आसमाँ से गिरा था जो कल टूट कर
वो सितारा ब-दोश-ए-क़मर आ गया

ले के पैमाना-ए-दर्द-ए-दिल हाथ में
मल के चेहरे पे ख़ून-ए-जिगर आ गया

बज़्म-ए-सय्यार्गान-ए-फ़लक-सैर में
इक हुनर-मंद सैय्यारा-गर आ गया

शौक़ की हद मगर चाँद तक तो नहीं
है अभी रिफ़अत-ए-आसमाँ और भी

है सुरय्या के पीछे सुरय्या रवाँ
कहकशाँ से परे कहकशाँ और भी

झाँकती हैं फ़ज़ाओं के पेचाक से
रंग और नूर की वादियाँ और भी

और भी मंज़िलें, और भी मुश्किलें
हैं अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी

आज दस्त-ए-जुनूँ पर है शम-ए-ख़िरद
दो जहाँ जिस के शोले से मामूर हैं

ले के आएँ पयाम-ए-तुलू-ए-सहर
जितने सूरज ख़लाओं में मस्तूर हैं

कह दो बर्क़-ए-तजल्ली से हो जल्वा-गर
आज मूसा नहीं हम सर-ए-तूर हैं