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समय | शाही शायरी
samay

नज़्म

समय

गुलज़ार

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मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ
क़दीम रातों की टूटी क़ब्रों के मेले कतबे

दिनों की टूटी हुई सलीबें गिरी पड़ी हैं
शफ़क़ की ठंडी चिताओं से राख उड़ रही है

जगह जगह गुर्ज़ वक़्त के चूर हो गए हैं
जगह जगह ढेर हो गई हैं अज़ीम सदियाँ

मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ
यहीं मुक़द्दस हथेलियों से गिरी हैं मेहंदी

शम्ओं की टूटी हुई लवें ज़ंग खा गई हैं
यहीं पे माथों की रौशनी जल के बुझ गई हैं

सपाट चेहरों के ख़ाली पन्ने खुले हुए हैं
हर्फ़ आँखों के मिट चुके हैं

मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ
यहीं कहीं ज़िंदगी के मअ'नी गिरे हैं और गिर के खो गए हैं!