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सफ़ेद रात से मंसूब है लहू का ज़वाल | शाही शायरी
safed raat se mansub hai lahu ka zawal

नज़्म

सफ़ेद रात से मंसूब है लहू का ज़वाल

आदिल मंसूरी

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सफ़ेद रात से मंसूब है लहू का ज़वाल
सबा के शानों पे बिखरे सुनहरी धूप के बाल

हर एक लफ़्ज़ के चेहरे पे मल दिया है मलाल
मिटे मिटे से मआनी बुझे बुझे से ख़याल

पिघलते लम्हों के हाथों में रौशनी का मआल
ख़िलाफ़ की नाफ़ से रह रह के सर उठाते सवाल

मिरे बदन का तजस्सुस मिरे गुनाह की ढाल