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सफ़र का दूसरा मरहला | शाही शायरी
safar ka dusra marhala

नज़्म

सफ़र का दूसरा मरहला

वज़ीर आग़ा

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चली कब हवा कब मिटा नक़्श-ए-पा
कब गिरी रेत की वो रिदा

जिस में छुपते हुए तू ने मुझ से कहा
आगे बढ़ आगे बढ़ता ही जा

मुड़ के तकने का अब फ़ाएदा
कोई चेहरा कोई चाप माज़ी की कोई सदा कुछ नहीं अब

ऐ गले के तन्हा मुहाफ़िज़ तिरा अब मुहाफ़िज़ ख़ुदा
मेरे होंटों पे कफ़

मेरे रा'शा-ज़दा बाज़ुओं से लटकती हुई गोश्त की धज्जियाँ
और लाखों बरस का बुढ़ापा

जो मुझ में समा कर हुमकने लगा
मुझ को माज़ी से कटने का कुछ ग़म नहीं

अपने हम-ज़ाद को रू-ब-रू पा के मैं ग़म-ज़दा भी नहीं
ये असा झुकते शानों पे काली अबा और गले के चलने की पैहम सदा

अब यही मेरी क़िस्मत यही आसरा