बहुत क़रीब से आई हवा-ए-दामन-ए-गुल
किसी के रू-ए-बहारीं ने हाल-ए-दिल पूछा
कि ऐ फ़िराक़ की रातें गुज़ारने वालो
ख़ुमार-ए-आख़िर-ए-शब का मिज़ाज कैसा था
तुम्हारे साथ रहे कौन कौन से तारे
सियाह रात में किस किस ने तुम को छोड़ दिया
बिछड़ गए कि दग़ा दे गए शरीक-ए-सफ़र
उलझ गया कि वफ़ा का तिलिस्म टूट गया
नसीब हो गया किस किस को क़ुर्ब-ए-सुल्तानी
मिज़ाज किस का यहाँ तक क़लंदराना रहा
फ़िगार हो गए काँटों से पैरहन कितने
ज़मीं को रश्क-ए-चमन कर गया लहू किस का
सुनाएँ या न सुनाएँ हिकायत-ए-शब-ए-ग़म
कि हर्फ़ हर्फ़ सहीफ़ा है, अश्क अश्क क़लम
किन आँसुओं से बताएँ कि हाल कैसा है
बस इस क़दर है कि जैसे हैं सरफ़राज़ हैं हम
सतीज़ा-कार रहे हैं जहाँ भी उलझे हैं
शिआर-ए-राह-ए-ज़नाँ से मुसाफ़िरों के क़दम
हज़ार दश्त पड़े, लाख आफ़्ताब उभरे
जबीं पे गर्द, पलक पर नमी नहीं आई
कहाँ कहाँ न लुटा कारवाँ फ़क़ीरों का
मता-ए-दर्द में कोई कमी नहीं आई
नज़्म
सफ़र-ए-आख़िर-ए-शब
मुस्तफ़ा ज़ैदी