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सच | शाही शायरी
sach

नज़्म

सच

इंजिला हमेश

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सच कहाँ है
तारीख़ के औराक़ में

तारीख़ से बड़ा धोका तो कुछ नहीं
तारीख़ तो अपने अपने

दलालों के मा-तहत रही
कोई झूट किस तरह सच में तब्दील हो जाता है

इस का जवाब देने के लिए सीता बाक़ी न रही
हर उस मोड़ पे बात अधूरी रह गई

जो अगर मुकम्मल हो जाती
तो अहल-ए-फ़साद का कारोबार कैसे चलता

तो क्या किसी चीज़ को हलाल करने के लिए
हराम की आमेज़िश दरकार है

कहीं ऐसा तो नहीं
रसूल के नाम लेवा

अबु-जेहल के रास्ते पर चल पड़े हों
कहीं ऐसा तो नहीं फ़लसफ़ा-ए-शहादत का दर्स

यज़ीद दे रहा हो