कितने असनाम ना-तराशीदा
पत्थरों ही में कसमसाते हैं
कितने ही ना-शगुफ़्ता लाला-ओ-गुल
ज़ेहन-ए-बुलबुल को गुदगुदाते हैं
कितने ही जल्वा-हा-ए-नादीदा
अभी पर्दे में मुस्कुराते हैं
ना-सराईदा कितने ही नग़्मे
दिल के तारों से लिपटे जाते हैं
किस ने छेड़ा है साज़-ए-मुस्तक़बिल
आज लम्हात गुनगुनाते हैं
किस ने छेड़ा है साज़-ए-मुस्तक़बिल
आज लम्हात गुनगुनाते हैं
नज़्म
साज़-ए-मुस्तक़बिल
परवेज़ शाहिदी