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साज़-ए-मुस्तक़बिल | शाही शायरी
saz-e-mustaqbil

नज़्म

साज़-ए-मुस्तक़बिल

परवेज़ शाहिदी

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कितने असनाम ना-तराशीदा
पत्थरों ही में कसमसाते हैं

कितने ही ना-शगुफ़्ता लाला-ओ-गुल
ज़ेहन-ए-बुलबुल को गुदगुदाते हैं

कितने ही जल्वा-हा-ए-नादीदा
अभी पर्दे में मुस्कुराते हैं

ना-सराईदा कितने ही नग़्मे
दिल के तारों से लिपटे जाते हैं

किस ने छेड़ा है साज़-ए-मुस्तक़बिल
आज लम्हात गुनगुनाते हैं

किस ने छेड़ा है साज़-ए-मुस्तक़बिल
आज लम्हात गुनगुनाते हैं