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सारबाँ | शाही शायरी
sarban

नज़्म

सारबाँ

फ़हीम शनास काज़मी

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सारबाँ निकले थे जिस वक़्त घरों से अपने
आशियानों को परिंदे भी नहीं छोड़ते जब

रास्ते
रस्तों की आग़ोश ही में सोए थे

और हवा
सब्ज़ पहाड़ों से नहीं उतरी थी

आसमाँ पर अभी तारों की सजी थी महफ़िल
सारबाँ निकले थे जिस वक़्त घरों से अपने

रंग ख़्वाबों में अभी घुलते थे
जिस्म में वस्ल की लज़्ज़त का नशा बाक़ी था

गर्म बिस्तर में
''गुल-ए-ख़ूबी'' परेशाँ थी अभी

दूध से ख़ूब भरा
एक कटोरा था तिपाई पे धरा

सारबाँ निकले थे जिस वक़्त सफ़र पर अपने
चार-सू गहरी ख़मोशी थी

चाँदनी रीत के सीने पे अभी सोई थी
और धीरे से

सबा ख़ुशबुएँ बिखराती थी
ओस से भीगी हुई

घास की हर पत्ती झुकी जाती थी
रात के नील में कुछ नूर घुला जाता था

ये जहाँ आईना-ख़ाना सा नज़र आता था
सारबाँ गहरी ख़मोशी में घरों से निकले

लौ चराग़ों की उन्हें झाँकती थी
धूल क़दमों से लिपटते हुए ये कहती थी:

तुम कहीं जाओ न अभी
साए अश्जार से रस्तों पे उतर आए थे

दर-ओ-दीवार ख़मोशी से थे फ़रियाद-कुनाँ
थीं जुगाली में मगन ऊंटनियां

घंटियाँ जागती थीं
लज़्ज़त-ए-वस्ल से मदहोश हवा जागती थी

पंखुड़ी होंटों पे ख़ामोश दुआ जागती थी
चार-सू गहरी ख़मोशी थी

फ़ज़ा जागती थी
सारबाँ निकले थे जिस वक़्त सफ़र पर अपने