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साक़ी | शाही शायरी
saqi

नज़्म

साक़ी

असरार-उल-हक़ मजाज़

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मिरी मस्ती में भी अब होश ही का तौर है साक़ी
तिरे साग़र में ये सहबा नहीं कुछ और है साक़ी

भड़कती जा रही है दम-ब-दम इक आग सी दिल में
ये कैसे जाम हैं साक़ी ये कैसा दौर है साक़ी

वो शय दे जिस से नींद आ जाए अक़्ल-ए-फ़ित्ना-परवर को
कि दिल आज़ुर्दा-ए-तमईज़-ए-लुत्फ़-ए-जौर है साक़ी

कहीं इक रिंद और वामाँदा-ए-अफ़्क़ार तन्हाई
कहीं महफ़िल की महफ़िल तौर से बे-तौर है साक़ी

जवानी और यूँ घिर जाए तूफ़ान-ए-हवादिस में
ख़ुदा रक्खे अभी तो बे-ख़ुदी का दौर है साक़ी

छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना
तिरे शादाब होंटों की मगर कुछ और है साक़ी

मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जाम-ए-लालीँ में
अभी कुछ और है कुछ और है कुछ और है साक़ी