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रूह की मौत | शाही शायरी
ruh ki maut

नज़्म

रूह की मौत

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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चमक सके जो मिरी ज़ीस्त के अँधेरे में
वो इक चराग़ किसी सम्त से उभर न सका

यहाँ तुम्हारी नज़र से भी दीप जल न सके
यहाँ तुम्हारा तबस्सुम भी काम कर न सका

लहू के नाचते धारे के सामने अब तक
दिल-ओ-दिमाग़ की बेचारगी नहीं जाती

जुनूँ की राह में सब कुछ गँवा दिया लेकिन
मिरे शुऊर की आवारगी नहीं जाती

न जाने किस लिए इस इंतिहा-ए-हिद्दत पर
मिरा दिमाग़ सुलगता है जल नहीं जाता

न जाने क्यूँ हर इक उम्मीद लौट जाने पर
मिरे ख़याल का लावा पिघल नहीं जाता

न जाने कौन से होंटों का आसरा पा कर
तुम्हारे होंट मिरी तिश्नगी को भूल गए

वही उसूल जो मोहकम थे नर्म साए में
ज़रा सी धूप में निकले तो झूल झूल गए