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रेफ़्रेनडम | शाही शायरी
referendum

नज़्म

रेफ़्रेनडम

हबीब जालिब

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शहर में हू का आलम था
जिन था या रेफ़्रेनडम था

क़ैद थे दीवारों में लोग
बाहर शोर बहुत कम था

कुछ बा-रीश से चेहरे थे
और ईमान का मातम था

मर्हूमीन शरीक हुए
सच्चाई का चहलम था

दिन उन्नीस दिसम्बर का
बे-मअ'नी बे-हँगम था

या वादा था हाकिम का
या अख़बारी कॉलम था