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रक़्स-ए-आगही | शाही शायरी
raqs-e-agahi

नज़्म

रक़्स-ए-आगही

इंजिला हमेश

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रुबा वो दीवानगी दे मुझे
रचाऊँ वो ताँडो

कि टूट जाए ख़ामोशी
खुल जाएँ सिले हुए लब

पाँव मेरे थिरकें
तो ज़मीन खिसक जाए इन क़दमों तले

जो लुत्फ़-अंदोज़ मुझे ईज़ा पहुँचा के
मौला

वो बरहनगी देखी मैं ने
जो दबीज़ पोशाकों में छुपा ली गई

मुझे कौन सुनता
कि फ़ैसलों की कुर्सी पर मा'ज़ूर दिमाग़ बैठे थे

मैं ने देखा अहल-ए-रिजाल को
पस्त-क़ामतों के घेरे में

मस्ख़रे जब इस्मत-दरी करते हैं फ़िक्र-ओ-दानिश की
तब मुर्दा मुआ'शरे की बे-हिसी-ओ-बेबसी को

मैं ने देखा है माबूद
मैं ने सड़े-गले समाज में मोहब्बत को पामाल होते हुए देखा

रुबा
वो दीवानगी दे मुझे

रचाऊँ वो ताँडो
कि निशाँ भी न रहें

ज़मीन-ए-नाहक़ के