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रक़ीब | शाही शायरी
raqib

नज़्म

रक़ीब

मीराजी

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तुम्ही को आज मिरे रू-ब-रू भी होना था
और ऐसे रंग में जिस का कभी गुमाँ भी न हो

निगाह तुंद ग़ज़बनाक दिल कलाम दुरुश्त
चमन में जैसे किसी बाग़बाँ की आँखों ने

रविश के साथ ही नन्हे से एक पौदे को
शगुफ़्ता हो के सँवरते निखरते देखा हो

मिरी तुम्हारी कहानी यही कहानी है
रविश पर सर को उठाए हर एक सोच से दूर

मैं अपनी धन में मगन था हर ताज़ा क़दम
मिरे उफ़ुक़ पे चमकते हुए सितारे की

हर इक किरन को मिरे पास लाए जाता था
मुझे न ख़ार का अंदेशा था न ठोकर का

मगर ये भूल थी मेरी वो ख़ुद-फ़रामोशी
मिरे ही सामने आई है और सूरत में

निगाह तुंद ग़ज़बनाक दिल कलाम दुरुश्त
मगर अब उस की ज़रूरत नहीं मैं सोचता हूँ

तुम्ही को आज मिरे रू-ब-रू न होना था
जहाँ मैं और भी थे मुझ से तुम से बढ़ के कहीं

जो अजनबी थे जिन्हें अजनबी ही रहना था
मुझे किसी ने बताया है आप के ये दोस्त

हमेशा रात गए अपने घर को आते हैं
लबों से सीटी बजाते हैं गुनगुनाते हैं

किसी की आह किसी के करम से मिटती है
मैं तुझ से कहती हूँ बहना ये क्या ज़माना है

न अपने नाम का कुछ पास है न घर की लाज
गए महीने से हर रोज़ रात को छुप कर

हमारी बीबी किसी मरदुए से मिलती है
मुझे ये फ़िक्र नहीं नौकरों को आदत है

कि पर को कव्वा बनाते हैं राई का पर्बत
बस एक ध्यान किसी तीर की तरह सीधा

ये सोच बन के मिरे दिल में आ ठहरता है
यही है जिस का कभी नाम लाजवंती था