मस्त हवा जब सावन की अंगड़ाई ले कर आती है
और फ़लक पर काली काली बदली जब छा जाती है
छम-छम छम-छम नन्ही बूँदें इठला कर जब आती हैं
प्रेम की हल्की तानों में रावी की लहरें गाती हैं
भीगे भीगे सावन में जब कोयल कूक सुनाती है
पायल की झंकारों की जब धीमी आहट आती है
उस वक़्त किनारे रावी के इक दिलकश मंज़र होता है
पिछले पहर जब धीमी धीमी ठंडी हवाएँ आती हैं
गाँव की सुंदर आँखों वाली पानी भरने जाती हैं
प्रेम के मंदिर में गंगा-जल कोई चढ़ाने जाती है
देवी के चरनों में कोई मीठे बोल सुनाती है
रावी की लहरों में छुप कर मुरली कोई बजाता है
जंगल की ख़ामोश फ़ज़ा में अमृत-रस बरसाता है
उस वक़्त किनारे रावी के इक दिलकश मंज़र होता है
सब्ज़ा फूल पतावर ग़ुंचे और नग़्मे सो जाते हैं
धरती पर आकाश से जब मा'सूम फ़रिश्ते आते हैं
शाम हुई मंदिर में देखो घंटे लोग बजाते हैं
रात हुई बैलों को ले कर हरवाहे अब जाते हैं
हल्की हल्की बूंदों में जब दुनिया सावन गाती है
हरी-भरी शाख़ों में छुप कर कोयल कूक सुनाती है
कुछ दिन के बिछड़े हुए साथी हँस के गले जब मिलते हैं
चाँदनी रातों में ग़ुंचे जब चटक चटक कर खिलते हैं
उस वक़्त किनारे रावी के इक दिलकश मंज़र होता है
नज़्म
रावी किनारे
जौहर निज़ामी