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रात और दिन | शाही शायरी
raat aur din

नज़्म

रात और दिन

महबूब ख़िज़ां

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मैं ने महसूस किया है तो खुली हैं आँखें
मैं ने महसूस किया है तो जले हैं ये चराग़

ये चराग़ाँ ये चमन कैसे मिले उन से नजात
साँस लेने को ठहर जाओ तो जादू का हिसार

हर तरफ़ शोला-ज़बाँ नाग हैं फन झूमते हैं
सर उठाते हैं नए राग नई रागनियाँ

पाँव पड़ते हैं गले पड़ते हैं अनजाने ख़याल
क्या मिरे पास मगर एक थकन एक उमंग

एक जीने की लगन एक मोहब्बत का लहू
न अँधेरे न उजाले से अदावत है मुझे

रात है दिन है मगर मुझ को तो दोनों से है काम
काम झूटा हो तो पहचानने वाले भी कई

रंग सच्चे भी न हों लोग बुरा मानते हैं
चलती-फिरती हैं दरीचों में कई तस्वीरें

क्या करूँ मैं तिरी दुनिया है मिरी आँखें हैं
रात और दिन में कोई फ़र्क़ नहीं है ऐसा

मैं ने महसूस किया है तो खुली हैं आँखें
मैं ने महसूस किया है तो जले हैं ये चराग़