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क़ुर्ब ओ बोद | शाही शायरी
qurb o buad

नज़्म

क़ुर्ब ओ बोद

मोहम्मद अल्वी

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रात को जब भी आँख खुली है
मुझ को यूँ महसूस हुआ है

जैसे कोई
मेरे सिरहाने खड़ा हुआ है

दो आँखें
मीठी नज़रों से

मेरा चेहरा चूम रही हैं
दो हाथों की नरमी

मेरे रुख़्सारों पर फैल गई है
दो होंटों की गर्मी

मेरी पेशानी में जज़्ब हुई है
ज़ुल्फ़ों की लहराती ख़ुश्बू

साँसों में रस-बस सी गई है
कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा में

गीतों के कुछ बोल पुराने
तैर रहे हैं

खिड़की के पर्दों को जैसे
अभी किसी ने ठीक किया है

आतिश-दां के बुझते शोले
अभी अभी भड़काए गए हैं

तकिया जो बिस्तर से गिरा था
अब सर उस पे धरा हुआ है

कम्बल जो पैरों में पड़ा था
सारा बदन अब ढाँप रहा है

मुझ को यूँ महसूस हुआ है
जैसे तुम

अब भी कमरे में खड़ी हुई हो
अब भी घर में बसी हुई हो

लेकिन तुम तो छोड़ के मुझ को
दूर पुराने क़ब्रिस्ताँ की

सिमटी सुकड़ी इक तुर्बत में
इक मुद्दत से छुपी हुई हो!