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क़िस्सा-गो | शाही शायरी
qissa-go

नज़्म

क़िस्सा-गो

आशुफ़्ता चंगेज़ी

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वही क़िस्सा-गो
जो इक रोज़ क़िस्सा सुनाते सुनाते

किसी प्यास को याद करता हुआ,
उठ गया था

फिर इक रोज़ लोगों से ये भी सुना था
कि वो,

प्यास ही प्यास की रट लगाता हुआ
इक कुएँ में गिरा था

इधर कुछ दिनों से
ये अफ़्वाह गर्दिश में है

कि वो क़िस्सा-गो
जिसे भी दिखाई दिया है

वो बस!
प्यास ही प्यास की रट लगाता हुआ

कुएँ की तरफ़ जा रहा है