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क़िस्सा-ए-शब | शाही शायरी
qissa-e-shab

नज़्म

क़िस्सा-ए-शब

ताबिश कमाल

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सुर्ख़ आँखें घुमाते हुए भेड़िये रात का हुस्न हैं
सरसराते हुए शाख़चों में छुपे माँदा पंछी

मुसल्ले पे बैठे हुए रीश-दार अहल-ए-बातिन
पिंघूड़े में किलकारते नूर चेहरे

ये बिस्तर बदलती हुई लड़कियाँ
ज़हर उगलते हुए साँप

दीवार पर जस्त करते हुए साए
लड़ती हुई बिल्लियाँ

रात का हुस्न हैं
अपने सर पर ये सदियों से फैला हुआ बे-मह-ओ-नज्म गर्दूं

सर-ए-शाम रंग अपना तब्दील करता है तो रात का आईना जागता है
अँधेरों भरे आईने में सदाएँ हैं, सूरत नहीं

सामेआ शक्ल तरतीब देता है
सुनते हुए जगमगाते हैं आवाज़ के ख़ाल-ओ-ख़द

मैं ने सरगोशियों क़हक़हों मंज़िलों आहटों
और आहों में देखा है हुस्न

एक पैराए में सर उठाती हैं गुर्राहटें, वस्ल-आसार साँसें
ये पलकें जो आहिस्ता आहिस्ता ढलने लगी हैं

शफ़क़ जो अँधेरे में घुलने लगी है
यही रात का हुस्न है

रात आँखों में है