EN اردو
पूर्वांचल | शाही शायरी
purwanchal

नज़्म

पूर्वांचल

फ़हमीदा रियाज़

;

मशरिक़ी यूपी कर्फ़्यू में
ये धरती कितनी सुंदर है

ये सुंदर और दुखी धरती
ये धानी आँचल पूरब का

तेज़ रफ़्तार रेल के साथ
हवा में उड़ता जाता है

पड़ा झिल-मिल लहराता है
दूर तक हरे खेत खलियान

ये धरती औरत कोई किसान
सँभाले सर पर भारी बोझ

चली है खेत से घर की ओर
वही घर जिस की छत पर आज

क्रोध का गिध मंडराता है
झपट कर पर फैलाता है

ओस से गीला है सब्ज़ा
कि गीले हैं मेरे दो नैन

पड़े माटी पत्थर के ढेर
वही मस्जिद मंदिर के फेर

तने लोगों के तेवर देख
इसी धरती पर सोया पूत

जाग कर तुम्हें मनाता है
'कबीरा' कुछ समझाता है

जहाँ हों नफ़रत के घमसान
नहीं रहते उस जा भगवान

नहीं करता है नज़र रहीम
नहीं करते हैं फेरा राम

तुम्हारी मिन्नत करता है
ख़ाक पर सीस झुकाता है

'कबीरा' कुछ समझाता है
इसी सरजू नदिया के पार

कमल-कुंजों पर जहाँ बहार
खड़े हैं हरे बाँस के झुण्ड

गड़ा है गौतम का संदेश
खिले हैं जहाँ बसंती फूल

खुदा है पत्थर पर उपदेश
अड़े जब दो फ़िर्क़ों की आन

तुले हों दे देने पर जान
है असली जीत की बस ये रीत

कि दोनों जाएँ बराबर जीत
नतीजा-ख़ेज़ यही अंजाम

न समझो वर्ना जंग तमाम
हुई जिस युद्ध में इक की हार

वो होता रहेगा बारम-बार
न दोनों जब तक मिट जाएँ

न दोनों जाएँ बराबर हार
यही टकराव का है क़ानून

यही गौतम का उत्तम ज्ञान
कि जिस के आगे एक जहान

अदब से सीस झुकाता है
तुम्ही तो वारिस थे इस के

तुम्हें क्यूँ बिसरा जाता है
सजे रहनुमा के सर दस्तार

पड़ें पांडव के गले में हार
जले हैं जिन के चूल्हे रोज़

भरे हैं जिन के सदा भण्डार
अरे तू मूरख क्यूँ हर बार

जान कर धोका खाता है
लहू में आप नहाता है