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'प्रेमचंद' एक था एक से इक जहाँ बन गया | शाही शायरी
premchand ek tha ek se ek jahan ban gaya

नज़्म

'प्रेमचंद' एक था एक से इक जहाँ बन गया

नज़ीर बनारसी

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मुफ़्लिसी थी तो उस में भी इक शान थी
कुछ न था कुछ न होने पे भी आन थी

चोट खाती गई चोट करती गई
ज़िंदगी किस क़दर मुर्दा मैदान थी

जो ब-ज़ाहिर शिकस्ता सा इक साज़ था
वो करोड़ों दुखे दिल की आवाज़ था

राह में गिरते पड़ते सँभलते हुए
सामराजी के तेवर बदलते हुए

आ गए ज़िंदगी के नए मोड़ पर
मौत के रास्ते से टहलते हुए

बन के बादल उठे देश पर छा गए
प्रेम-रस सूखे खेतों पे बरसा गए

अब वो जनता की सम्पत है धनपत नहीं
सिर्फ़ दो-चार के घर की दौलत नहीं

लाखों दिल एक हों जिस में वो प्रेम है
दो दिलों की मोहब्बत मोहब्बत नहीं

अपने संदेश से सब को चौंका दिया
'प्रेम' ने प्रेम का अर्थ समझा दिया

फ़र्द था फ़र्द से कारवाँ बन गया
एक था एक से इक जहाँ बन गया

ऐ बनारस तिरा एक मुश्त-ए-ग़ुबार
उठ के मेमार-ए-हिन्दोस्ताँ बन गया

मरने वाले के जीने का अंदाज़ देख
देख काशी की मिट्टी का एजाज़ देख