सूना सूना सा है क्यूँ आज जहान-ए-उर्दू
उठ गया कहते हैं इक पीर-ए-मुग़ान-ए-उर्दू
जिस को ढूँडेंगे सदा तिश्ना-लबान-ए-तहक़ीक़
रोएँगे बरसों जिसे दीदा-वरान-ए-उर्दू
राह-रौ रह-गुज़र-ओ-रहबर-ओ-उर्दू-ए-क़दीम
वर्ना मिलता था किसे नाम-ओ-निशान-ए-उर्दू
छिन गई अहल-ए-वतन एक मता-ए-तहक़ीक़
ऐ दकन लुट गई फिर तेरी दुकान-ए-उर्दू
आख़िरी तीर भी तरकश का हुआ राह-ए-सिपार
टूट कर रह गई लो आज कमान-ए-उर्दू
कौन होता है हरीफ़-ए-मय-ए-मर्द-अफ़्गन-ए-इल्म
किस के सर जाएगा अब बार-ए-गिरान-ए-उर्दू
नज़्म
पीर-ए-मुग़ान-ए-उर्दू
मसऊद हुसैन ख़ां