EN اردو
पीर-ए-मुग़ान-ए-उर्दू | शाही शायरी
pir-e-mughan-e-urdu

नज़्म

पीर-ए-मुग़ान-ए-उर्दू

मसऊद हुसैन ख़ां

;

सूना सूना सा है क्यूँ आज जहान-ए-उर्दू
उठ गया कहते हैं इक पीर-ए-मुग़ान-ए-उर्दू

जिस को ढूँडेंगे सदा तिश्ना-लबान-ए-तहक़ीक़
रोएँगे बरसों जिसे दीदा-वरान-ए-उर्दू

राह-रौ रह-गुज़र-ओ-रहबर-ओ-उर्दू-ए-क़दीम
वर्ना मिलता था किसे नाम-ओ-निशान-ए-उर्दू

छिन गई अहल-ए-वतन एक मता-ए-तहक़ीक़
ऐ दकन लुट गई फिर तेरी दुकान-ए-उर्दू

आख़िरी तीर भी तरकश का हुआ राह-ए-सिपार
टूट कर रह गई लो आज कमान-ए-उर्दू

कौन होता है हरीफ़-ए-मय-ए-मर्द-अफ़्गन-ए-इल्म
किस के सर जाएगा अब बार-ए-गिरान-ए-उर्दू