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पस्पाई | शाही शायरी
paspai

नज़्म

पस्पाई

ज़हीर सिद्दीक़ी

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मुझ को भी ग़ुस्सा आता है
जब कोई साइकल वाला

अगले पहिए से
कीचड़ की इक छाप मेरी पतलून पे दे देता है

जब कोई मोटर वाला
मेरे मुँह पर

मुड़ के के गड्ढों के गंदे पानी के छींटे दे देता है
जब कोई खुले हुए छाते की कमाई से सर में ठोका देता है

जब फ़ुटपाथ पे
मेरे मुक़ाबिल चलने वाला

ऊँचे महलों के तकते तकते मुझ को धक्का देता है
मुझ को भी ग़ुस्सा आता है

लेकिन मैं तो
सूखे बाज़ू

उभरी पस्ली
पिचके गाल और ख़ाली जेबें

देख के अपनी
चुप रहता हूँ

और मेरे ऊपर वाले नोकीले दाँत बिछर जाते हैं
होंटों से बाहर आते हैं

निचले होंट से पहुँच जाते हैं
मेरा सारा ग़ुस्सा निचले होंट के ख़ूँ में थर्राता है