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पस-ए-तक़रीब-ए-मुलाक़ात | शाही शायरी
pas-e-taqrib-e-mulaqat

नज़्म

पस-ए-तक़रीब-ए-मुलाक़ात

अब्दुल अहद साज़

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पस-ए-तक़रीब-ए-मुलाक़ात यहाँ शाम ढले
देर तक फैली रहेगी तिरी शिरकत की महक

मुतरन्निम से रहेंगे ये हवा के गोशे
जिन में ग़ल्तीदा है अब लहन-ए-तकल्लुम तेरा

रात भर फैली रहेगी ये तअस्सुर की शफ़क़
जज़्ब है जिस में दिल-आवेज़ तबस्सुम तेरा

याद रह जाएगी इस सेहन को ये शाम-ए-फ़ुसूँ
जल गई थीं कई अन-देखी सुहानी शमएँ

लौ सा दे उट्ठा था माहौल तिरे आने का
छा गया था दर-ओ-दीवार पे वो परतव-ए-रंग

जैसे माख़ूज़ हों लम्हे किसी अफ़्साने से
छोड़ जाएगा वही नर्म कसक फिर दिल में

जिस से शादाब है मुद्दत से मिरा ज़ौक़-ए-तलब
आज तक़रीब में ये तर्ज़-ए-मुलाक़ात तिरा

बे-नियाज़ाना तख़ातुब में परेशाँ सा तिरे
गोश-ए-लब पे कोई हर्फ़ शनासाई का

तमकनत वाली अदाओं में अनोखा सा नियाज़
मुजतनिब आँखों में इक अक्स पज़ीराई का

आम मौज़ू-ए-सुख़न में भी अयाँ लहजा-ए-ख़ास
ज़ेहन की बात में भी दिल की धमक का एहसास

इक तफ़ाहुम सा किसी ग़मज़ा-ए-ग़लतीदा में
एक मानूस सा ख़म काकुल-ए-पेचीदा में

तुझ से ये रब्त कि मौहूम भी मफ़्हूम भी है
तू कि है मुझ से तिरी ज़ीस्त का हर रंग जुदा

शरह-ए-हालात अलग उम्र का आहंग सिवा
पहले ही राह में हाएल है ख़लीज-ए-अक़दार

तू ने ताबिंदा भी रक्खा है तिरा ख़त्त-ए-हिसार
फिर भी इक क़ुर्ब की ख़ुशबू है फ़ज़ा में बेदार

ये रह-ओ-रस्म जो इज़हार-ए-मोहब्बत भी नहीं
है तिरे दम से ये राहत कि जो राहत भी नहीं

ग़म-ए-बे-नाम तिरे नाम से मौसूम भी है
हुस्न से राब्ता-ए-इश्क़ के मज़मूँ हैं बहुत

इस लताफ़त-कदा-ए-केफ़ में अफ़्सूँ हैं बहुत
न तिरे जिस्म का संदल न तिरे लब के गुलाब

न तिरी ज़ुल्फ़ की शबनम है इस एहसास का नाम
यूँ तो इस शाम का पैकर भी है तेरा ये जमाल

इस शनासाई का उनवाँ है फ़क़त निकहत-ए-शाम
चश्म-ए-हमदम की अता-कर्दा ये असाइश-ए-दीद

मेहरबाँ हुस्न का बख़्शा हुआ ये इज़्न-ए-कलाम
आज फिर जागती रह जाएगी हर बाम तले

वही शादाब सी हसरत वही आसूदा कसक
देर तक फैली रहेगी तिरी शिरकत की महक

पस-ए-तक़रीब-ए-मुलाक़ात यहाँ शाम ढले