फिर इक जम्म-ए-ग़फ़ीर
एक मैदान में
आसमाँ की तरफ़ देर से तक रहा है!
इमरा-उल-क़ैस की बेटियाँ
शाइरी की ज़बाँ फिर समझने लगीं
लपलपाती ज़बानें
ख़िताबत का जादू जगाने लगीं
वो ख़ुदा-ज़ादियाँ मुस्कुराने लगीं
और मेलों में फिर भीड़ बढ़ने लगी
कोई मिम्बर से बोला
कि ऐ मेरे प्यारो!
तुम्हें अपने अगलों की उम्रें लगें
बाज़ आओ सफ़र से
कुछ आराम लो
क़ाफ़िलों की मधुर घंटियाँ
रेत के सिलसिले
उस की देंगे गवाही तुम्हें
हम ने पहले कहा था
घरों में रहो
तुम न माने तो उस की सज़ा पा चुके
बाज़ आओ अभी वक़्त है
बे-कराँ नीली नीली ख़ला
फिर न मसहूर कर दे तुम्हें
नज़्म
पहला ख़ुत्बा
आशुफ़्ता चंगेज़ी