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पागलों की मद्ह में | शाही शायरी
pagalon ki madh mein

नज़्म

पागलों की मद्ह में

अनवर सेन रॉय

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पागलों से नहीं
बहुत डर लगता है, मुझे

नॉर्मल और ज़हीन लोगों से
कुछ भी कर सकते हैं

वो
अपनी महबूबियत में

क़हर और फ़ित्ने से भरी
ख़ुद-पसंदी में

कुछ भी सोच सकते हैं
कुछ भी चाह सकते हैं

मंसूबे बनाना
और साज़िशें करना मुश्किल नहीं होता

उन के लिए
यक़ीन रहता है उन्हें

कुछ भी कर सकती है ज़ेहानत
अगर मुश्किल कोई वार करेगी

तो ढाल बन जाएगी ज़ेहानत
नॉर्मल

बहुत मुतअस्सिर होते हैं उन से
उन जैसा होना चाहते हैं

उन्ही का साथ देते हैं
किसी भी औरत के बारे में

कुछ भी सोच सकते हैं
ज़हीन और नॉर्मल

मंतिक़ से चलते हैं और हिसाब से
इश्क़ नहीं कर सकते इसी लिए

ये बात तो साबित नहीं
कि इश्क़

पहले महबूब के दिल में पैदा होता है
औरतें ये सब समझती हैं

मर्दों से कहीं ज़ियादा
अहमक़-तरीन लगने वाली औरत भी

इन मुआमलों में
कहीं आगे होती है किसी भी मर्द से

फिर भी
फँस ही जाती हैं बे-चारी

फॅंसती चली जाती है
पागलों को क़ुबूल नहीं करतीं वो

हालाँकि वही जानती हैं सब से ज़ियादा
इश्क़ तो काम है सिर्फ़ पागलों का

नाच सकते हैं पागल
उन के ख़याल में

याद कर सकते हैं उन्हें
फूलों को देख कर

सुन सकते हैं हवा से उन की बातें
जो उन की तरफ़ से न भी आई हो

दरख़्तों को चलता हुआ देख सकते हैं
उन के साथ

भरी दो-पहरों में
धूप पर हैरान हो सकते हैं

उन के मुक़ाबिल खड़ा कर सकते हैं
धूप और साए को पागल

और शाएरी बन सकती हैं
उन के बारे में

सिर्फ़ पागलों की बातें