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पागल | शाही शायरी
pagal

नज़्म

पागल

अब्बास ताबिश

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वो आया शहर की तरफ़
इक उस की चाप की खनक

क़याम-ए-रोज़-ए-इश्क़ की पुकार थी
कि बर्ग-ओ-बार-ए-ख़ाक का फ़िशार थी

वो आया शहर की तरफ़
लपक के ईंट की तरफ़

वो इस तरह बढ़ा कि जैसे नान-ए-ख़ुश्क पर कोई
सग-ए-गुरसना गिर पड़े

वो गालियों भरी ज़बाँ गली गली छलक पड़ी
हर एक जेब उस की उँगलियों से तार तार थी

कि उस की थूथनी से फूटती गमक
क़ियाम-ए-रोज़-ए-इश्क़ की पुकार थी

वो गालियों भरी ज़बाँ मिरा लिबास गंदगी से भर गई
न जाने कितने लोग

उस के दस्त-ए-दश्ना-दार से गुज़र गए
हयात पार कर गए

वो बे-हुनर सुबुक-तनी से डर गया
सब उस की रह से हट गए

तो उस ने अपनी रूह की बरहनगी
ज़मीन-ए-माह की तरफ़ उछाल दी

कि ये हुनर उसी का था