कभी इस सुबुक-रौ नदी के किनारे गए ही नहीं हो
तुम्हें क्या ख़बर है
वहाँ अन-गिनत खुरदुरे पत्थरों को
सजल पानियों ने
मुलाएम रसीले, मधुर गीत गा कर
अमिट चिकनी गोलाइयों को अदा सौंप दी है
वो पत्थर नहीं था
जिसे तुम ने बे-डोल, अन-घड़ समझ कर
पुरानी चटानों से टकरा के तोड़ा
अब उस के सुलगते तराशे
अगर पाँव में चुभ गए हैं तो क्यूँ चीख़ते हो?
नज़्म
पादाश
शकेब जलाली