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पाबंदी | शाही शायरी
pabandi

नज़्म

पाबंदी

अहमद नदीम क़ासमी

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मिरे आक़ा को गिला है कि मिरी हक़-गोई
राज़ क्यूँ खोलती

और मैं पूछता हूँ तेरी सियासत फ़न में
ज़हर क्यूँ घोलती है

मैं वो मोती न बनूँगा जिसे साहिल की हवा
रात दिन रोलती है

यूँ भी होता कि आँधी के मुक़ाबिल चिड़िया
अपने पर तौलती है

इक भड़कते हुए शोले पे टपक जाए अगर
बूँद भी बोलती है