क़दम चालीसवीं मंज़िल में उस यूसुफ़ ने जब रक्खा
तो पहुँचा कारवान-ए-वहइ आवाज़-ए-जरस हो कर
कि दिल तो जाग उठा आँखों में ग़फ़लत नींद की छाई
हुआ सीने में इस से मौजज़न इक लुज्जा-ए-इरफ़ाँ
कि ताब इस जज़्र-ओ-मद की फ़ितरत-ए-इंसाँ नहीं लाई
बढ़ा जोश इस का बढ़ कर साहिल-ए-अफ़्लाक तक पहुँचा
उठी मौज इस से उठ कर अर्श की ज़ंजीर खड़काई
झरोका अर्श का रूहुल-क़ुदुस ने खोल कर देखा
तो निकला मुद्दतों का रब्त बरसों की शनासाई
हुईं जारी ज़बाँ पर आयतें वो नूर की जिस पर
फ़िदा हो लहन-ए-दाऊदी-ओ-अन्फ़ास-ए-मसीहाई
नज़्म
नुज़ूल-ए-वहइ
नज़्म तबा-तबाई