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नूर-जहाँ का मज़ार | शाही शायरी
nur-jahan ka mazar

नज़्म

नूर-जहाँ का मज़ार

तिलोकचंद महरूम

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दिन को भी यहाँ शब की सियाही का समाँ है
कहते हैं ये आराम-गह-ए-नूर-जहाँ है

मुद्दत हुई वो शम्अ तह-ए-ख़ाक निहाँ है
उठता मगर अब तक सर-ए-मरक़द से धुआँ है

जल्वों से अयाँ जिन के हुआ तूर का आलम
तुर्बत पे है उन के शब-ए-दैजूर का आलम

ऐ हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ कहाँ हैं वो शरारे
किस बाग़ के गुल हो गए किस अर्श के तारे

क्या बन गए अब किर्मक-ए-शब-ताब वो सारे
हर शाम चमकते हैं जो रावी के किनारे

या हो गए वो दाग़ जहाँगीर के दिल के
क़ाबिल ही तो थे आशिक़-ए-दिल-गीर के दिल के!

तुझ सी मलिका के लिए बारा-दरी है
ग़ालीचा सर-ए-फ़र्श है कोई न दरी है

क्या आलम-ए-बेचारगी ऐ ताज-वरी है
दिन को यहीं बिसराम यहीं शब-बसरी है

ऐसी किसी जोगन की भी कुटिया नहीं होती
होती हो मगर यूँ सर-ए-सहरा नहीं होती

तावीज़-ए-लहद है ज़बर ओ ज़ेर ये अंधेर
ये दौर-ए-ज़माना के उलट फेर ये अंधेर

आँगन में पड़े गर्द के हैं ढेर ये अंधेर
ऐ गर्दिश-ए-अय्याम ये अंधेर! ये अंधेर

माह-ए-फ़लक-ए-हुस्न को ये बुर्ज मिला है
ऐ चर्ख़ तिरे हुस्न-ए-नवाज़िश का गिला है

हसरत है टपकती दर-ओ-दीवार से क्या क्या
होता है असर दिल पे इन आसार से क्या क्या

नाले हैं निकलते दिल-अफ़गार से क्या क्या
उठते हैं शरर आह शरबार से क्या

ये आलम-ए-तन्हाई ये दरिया का किनारा
है तुझ सी हसीना के लिए हू का नज़ारा

चौ-पाए जो घबराते हैं गर्मी से तो अक्सर
आराम लिया करते हैं इस रौज़े में आ कर

और शाम को बालाई सियह ख़ानों से शप्पर
उड़ उड़ के लगाते हैं दर-ओ-बाम के चक्कर

मामूर है यूँ महफ़िल-ए-जानाँ न किसी की
आबाद रहे गोर-ए-ग़रीबाँ न किसी की

आरास्ता जिन के लिए गुलज़ार ओ चमन थे
जो नाज़ुकी में दाग़ दह-ए-बर्ग-ए-समन थे

जो गुल-रुख़ ओ गुल-पैरहन ओ ग़ुंचा-दहन थे
शादाब गुल-ए-तर से कहीं जिन के बदन थे

पज़मुर्दा वो गुल दब के हुए ख़ाक के नीचे
ख़्वाबीदा हैं ख़ार-ओ-ख़स-ओ-ख़ाशाक के नीचे

रहने के लिए दीदा ओ दिल जिन के मकाँ थे
जो पैकर-ए-हस्ती के लिए रूह-ए-रवाँ थे

महबूब-ए-दिल-ख़ल्क़ थे जाँ-बख़्श-ए-जहाँ थे
थे यूसुफ़-ए-सानी कि मसीहा-ए-ज़माँ थे

जो कुछ थे कभी थे मगर अब कुछ भी नहीं हैं
टूटे हुए पिंजर से पड़े ज़ेर-ए-ज़मीं हैं

दुनिया का ये अंजाम है देख ऐ दिल-ए-नादाँ
हाँ भूल न जाए तुझे ये मदफ़न-ए-वीराँ

बाक़ी हैं न वो बाग़ न वो क़स्र न ऐवाँ
आराम के अस्बाब न वो ऐश के सामाँ

टूटा हुआ इक साहिल-ए-रावी पे मकाँ है
दिन को भी जहाँ शब की सियाही का समाँ है