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नूर-जहाँ | शाही शायरी
nur-jahan

नज़्म

नूर-जहाँ

चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी

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हर जल्वा जहाँगीर था जिस वक़्त जवाँ थी
कहते हैं जिसे नूर-जहाँ नूर-ए-जहाँ थी

था हूर का टुकड़ा बुत-ए-तन्नाज़ का मुखड़ा
इक शम्अ' थी फ़ानूस में जो नूर-फ़िशाँ थी

अंदाज़ में शोख़ी में करिश्मे में अदा में
तलवार थी बर्छी थी कटारी थी सिनाँ थी

रुख़्सार-ए-जहाँ-ताब की पड़ती थीं शुआएँ
या हुस्न के दरिया से कोई मौज रवाँ थी

बिजली थी चमकती हुई दामान-ए-शफ़क़ में
या मौज-ए-तबस्सुम थी लबों में जो निहाँ थी

गुलज़ार-ए-मआ'नी की चहकती हुई बुलबुल
शाइ'र थी सुख़न-संज थी एजाज़-ए-बयाँ थी

बेताब हुआ जाता है दिल ज़िक्र से उस के
क्या पूछते हो कौन थी वो और कहाँ थी

दुनिया-ए-तदब्बुर में थी यकता-ए-ज़माना
हाथ उस के थे और उन में हुकूमत की इनाँ थी

दस्तूर-ए-अदालत के लिए उस का क़लम था
फ़रमान-ए-रेआ'या के लिए उस की ज़बाँ थी

वो शम-ए-शब-अफ़रोज़ थी परवाना जहाँगीर
ये बात भी दोनों की मोहब्बत से अयाँ थी

लाहौर में देखा उसे मदफ़ूँ तह-ए-मर्क़द
गर्द-ए-कफ़-ए-पा जिस की कभी काहकशाँ थी

पैवंद-ए-ज़मीं हो गए अब कौन बताए
'कैफ़ी' ये जहाँगीर था वो नूर-जहाँ थी