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नींद प्यारी नींद | शाही शायरी
nind pyari nind

नज़्म

नींद प्यारी नींद

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

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जब खुली आँखों से अपने आस-पास
देखता हूँ अपनी दुनिया किस क़दर महदूद-ओ-तंग

और फिर
इक जागते लम्हे में मैं

बंद कर लेता हूँ अपनी आँख और
देखता हूँ सामने फैला हुआ इक जहान-ए-बे-कनार

देखता हूँ अपनी ही आँखों से वो सारे मनाज़िर
शहर और आबादियाँ

सैकड़ों सदियों से जो महफ़ूज़ हैं
किस को देखूँ किस को छोड़ूँ

ऐसी इक दुनिया न जिस का ओर-छोर
न तो सम्तें और हदें

और उफ़ुक़ नापैद, ग़ाएब आसमाँ
सोचता हूँ आह मेरा ये सफ़र कितना तवील

फ़ासले इतने कि उन की अब कोई मंज़िल नहीं
तय करूँगा और थक जाऊँगा मैं

और मेरी नींद रूठी ही रहेगी ताकि मैं आराम लूँ
खौल देता हूँ ये आँखें

और अब ख़ुश हूँ चलो फ़ुर्सत मिली इस मुफ़्त की बेगार से
क्या बताऊँ मेरे अंदर से उस दम

दो नई आँखें निकल कर
मेरी आँखों की जगह लेती हैं

फिर पहुँच जाता हूँ उस दुनिया में
जिस से भाग कर आया था मैं

फिर वही सारे मनाज़िर शहर और आबादियाँ
जैसे इक आसेब बन कर मेरे सर पे छा गईं

आह मुझ को खा गईं
काश कोई वो खुली आँखें मुझे वापस दिला दे

मैं हमेशा के लिए बन जाऊँगा उस शख़्स का
आज तक वो शख़्स मेरी आँख से ओझल है, मैं

मौत तक क्या सो सकूँगा
मौत ही वो अपनी प्यारी नींद है

जो हमेशा के लिए अपने मुसाफ़िर को सुलाती है
उसे तोहफ़ा अता करती है

जिस को हम कभी आराम कहते कभी अम्न-ओ-सुकूँ
मैं उसी की काली ज़ुल्फ़ों का असीर

मैं उसी अपनी दुल्हन का मुंतज़िर हूँ