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नज़राना | शाही शायरी
nazrana

नज़्म

नज़राना

कैफ़ी आज़मी

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तुम परेशान न हो, बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा

उसी कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं
शब-ए-तारीक गुज़ारूँगा, चला जाऊँगा

रास्ता भूल गया, या यही मंज़िल है मिरी
कोई लाया है कि ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं

कहते हैं हुस्न की नज़रें भी हसीं होती हैं
मैं भी कुछ लाया हूँ, क्या लाया हूँ मालूम नहीं

यूँ तो जो कुछ था मिरे पास मैं सब बेच आया
कहीं इनआम मिला, और कहीं क़ीमत भी नहीं

कुछ तुम्हारे लिए आँखों में छुपा रक्खा है
देख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं

एक तो इतनी हसीं दूसरे ये आराइश
जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है

मुस्कुरा देती हो रस्मन भी अगर महफ़िल में
इक धनक टूट के सीनों में बिखर जाती है

गर्म बोसों से तराशा हुआ नाज़ुक पैकर
जिस की इक आँच से हर रूह पिघल जाती है

मैं ने सोचा है कि सब सोचते होंगे शायद
प्यास इस तरह भी क्या साँचे में ढल जाती है

क्या कमी है जो करोगी मिरा नज़राना क़ुबूल
चाहने वाले बहुत, चाह के अफ़्साने बहुत

एक ही रात सही गर्मी-ए-हंगामा-ए-इश्क़
एक ही रात में जल मरते हैं परवाने बहुत

फिर भी इक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुम को कभी तंहाई का एहसास न हो

काश ऐसा न हो घेरे रहे दुनिया तुम को
और इस तरह कि जिस तरह कोई पास न हो

आज की रात जो मेरी ही तरह तन्हा है
मैं किसी तरह गुज़ारूँगा चला जाऊँगा

तुम परेशान न हो, बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा