अगर हम रोज़ मिलते ये जहाँ वीराँ न होता
धड़कता रोज़ ओ शब दिल इस तरह बे-जाँ न होता
तिलिस्म-ए-बाद-ओ-बाराँ में कोई तूफ़ाँ न होता
मोहब्बत ख़त्म हो जाने का भी इम्काँ न होता
उफ़ुक़ के पार क्या है जान और दिल को ख़बर होती
जहाँ तक जा नहीं सकती वहाँ शायद नज़र होती
नज़्म
नज़्म
ज़ीशान साहिल