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नज़्म | शाही शायरी
nazm

नज़्म

नज़्म

ज़ीशान साहिल

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अगर हम रोज़ मिलते ये जहाँ वीराँ न होता
धड़कता रोज़ ओ शब दिल इस तरह बे-जाँ न होता

तिलिस्म-ए-बाद-ओ-बाराँ में कोई तूफ़ाँ न होता
मोहब्बत ख़त्म हो जाने का भी इम्काँ न होता

उफ़ुक़ के पार क्या है जान और दिल को ख़बर होती
जहाँ तक जा नहीं सकती वहाँ शायद नज़र होती