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नज़्म | शाही शायरी
nazm

नज़्म

नज़्म

शबनम अशाई

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अगली फ़ोन-कॉल पे
वो तमाम चराग़

बुझ जाते हैं
जो मैं

पहली फ़ोन-कॉल के ब'अद
जलाती हूँ!

चराग़ जलाते जलाते
मैं

अपनी उँगलियाँ भी
जला लेती हूँ

मेरी उँगलियाँ झुलसने का इंदिराज
तुम अपनी

कौन सी फ़ाइल में रख रहे हो