चुप रहूँगा तो ज़बाँ यूँ भी रहेगी बेकार
और बोलों तो ज़बाँ काट ही ली जाएगी
क्यूँ न कुछ बोल ही लूँ मैं कि पस-ए-क़त्ल-ए-ज़बाँ
ये तो अफ़्सोस न होगा कि ज़बाँ रहते हुए
मुझ को इज़हार-ए-ख़यालात की जुरअत न हुई
मुझ से इस ज़ुल्म-ओ-सितम की भी शिकायत न हुई
नज़्म
नज़्म
सरफ़राज़ ख़ालिद