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नज़्म-गो के लिए मशवरा | शाही शायरी
nazm-go ke liye mashwara

नज़्म

नज़्म-गो के लिए मशवरा

दानियाल तरीर

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नज़्म कहोगे
कह लोगे क्या?

देखो इतना सहल नहीं है
बनती बात बिगड़ जाती है

अक्सर नज़्म अकड़ जाती है
चलते चलते

ला को मरकज़ मान के
घूमने लग जाती है

लड़ते लड़ते
लफ़्ज़ों के हाथों को

चूमने लग जाती है
सीधे रस्ते पर मुड़ती है

मोड़ पे सीधा चल पड़ती है
हर्फ़ को बर्फ़ बना देती है

बर्फ़ में आग लगा देती है
चुप का क़ुफ़्ल लगा कर गूँगी हो जाती है

धीमा धीमा बोलते यक-दम ग़ुर्राती है
नज़्म कहोगे

कह लोगे क्या
देखो इतनी सहल नहीं है

बनती बात बिगड़ जाती है
राह में साँस उखड़ जाती है