तीरगी जाल है और भाला है नूर
इक शिकारी है दिन इक शिकारी है रात
जग समुंदर है जिस में किनारे से दूर
मछलियों की तरह इब्न-ए-आदम की ज़ात
जग समुंदर है साहिल पे हैं माही-गीर
जाल थामे कोई कोई भाला लिए
मेरी बारी कब आएगी क्या जानिए
दिन के भाले से मुझ को करेंगे शिकार
रात के जाल में या करेंगे असीर?
नज़्म
नज़्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़