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नज़्म | शाही शायरी
nazm

नज़्म

नज़्म

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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तीरगी जाल है और भाला है नूर
इक शिकारी है दिन इक शिकारी है रात

जग समुंदर है जिस में किनारे से दूर
मछलियों की तरह इब्न-ए-आदम की ज़ात

जग समुंदर है साहिल पे हैं माही-गीर
जाल थामे कोई कोई भाला लिए

मेरी बारी कब आएगी क्या जानिए
दिन के भाले से मुझ को करेंगे शिकार

रात के जाल में या करेंगे असीर?