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नया सफ़र है पुराने चराग़ गुल कर दो | शाही शायरी
naya safar hai purane charag gul kar do

नज़्म

नया सफ़र है पुराने चराग़ गुल कर दो

साहिर लुधियानवी

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फ़रेब-ए-जन्नत-ए-फ़र्दा के जाल टूट गए
हयात अपनी उमीदों पे शर्मसार सी है

चमन में जश्न-ए-वरूद-ए-बहार हो भी चुका
मगर निगाह-ए-गुल-ओ-लाला सोगवार सी है

फ़ज़ा में गर्म बगूलों का रक़्स जारी है
उफ़ुक़ पे ख़ून की मीना छलक रही है अभी

कहाँ का महर-ए-मुनव्वर कहाँ की तनवीरें
कि बाम-ओ-दर पे सियाही झलक रही है अभी

फ़ज़ाएँ सोच रही हैं कि इब्न-ए-आदम ने
ख़िरद गँवा के जुनूँ आज़मा के क्या पाया

वही शिकस्त-ए-तमन्ना वही ग़म-ए-अय्याम
निगार-ए-ज़ीस्त ने सब कुछ लुटा के क्या पाया

भटक के रह गईं नज़रें ख़ला की वुसअत में
हरीम-ए-शाहिद-ए-राना का कुछ पता न मिला

तवील राहगुज़र ख़त्म हो गई लेकिन
हनूज़ अपनी मसाफ़त का मुंतहा न मिला

सफ़र-नसीब रफ़ीक़ो क़दम बढ़ाए चलो
पुराने राह-नुमा लौट कर न देखेंगे

तुलू-ए-सुब्ह से तारों की मौत होती है
शबों के राज-दुलारे इधर न देखेंगे