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नवा-ए-गुमराह-ए-शब | शाही शायरी
nawa-e-gumrah-e-shab

नज़्म

नवा-ए-गुमराह-ए-शब

जावेद अनवर

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ऐ ख़्वाब-ए-ख़ंदा
तुझे तो मैं ढूँडने चला था

मुझे ख़बर ही नहीं थी तू मेरी उँगलियों में खिला हुआ है
मिरे सदफ़ में तिरे ही मोती हैं

मेरी जेबों में तेरे सिक्के खनक रहे हैं
नवा-ए-गुमराह-ए-दश्त-ए-शब के नुजूम तेरी हथेलियों पर चहक रहे हैं

मिरे ख़ला में तमाम सम्तें तिरे ख़ला से उतर रही हैं
मुझे ख़बर ही न थी

कि मेरी नज़र की ऐनक में तेरे शीशे जुड़े हुए हैं
तुझे तो मैं ढूँडने चला था

तुझे तो मैं ढूँडने चला था
किसी सलीब-ए-कुहन पे दार-ओ-रसन के तारीक रास्तों की

थकन में फ़रहाद कोहकन की सदा-ए-सद-चाक में किसी चूक
मैं उबलते हुए लहू में खिले गुल तिफ़्ल-ए-बे-गुनह के बिखरते रंगों

की उँगली थामे तुझे तो मैं ढूँडने चला था
शब-ए-तरब है

शब-ए-तरब में न साज़ उतरे न नूर बिखरा
न बादलों ने फुवार भेजी

न झील ने माहताब उगला
शब-ए-तरब है ऐ ख़्वाब-ए-ख़ंदा

शब-ए-तरब में मरी तलब का रबाब बन जा
बुझी रगों में शराब बन जा

ऐ ख़्वाब-ए-ख़ंदा मिरी अँगेठी का ख़्वाब बन जा
कि शब का आहन पिघलने तक मेरी चिमनियों के धुएँ में

जुगनू मल्हार गाएँ