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नौहा | शाही शायरी
nauha

नज़्म

नौहा

महमूद अयाज़

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तमाम उम्र के सूद ओ ज़ियाँ का बार लिए?
हर इंक़िलाब-ए-ज़माना से मुँह छुपाए हुए

हयात ओ मर्ग की सरहद पे नीम-ख़्वाबीदा
मैं मुंतज़िर था

मसर्रत की कोई धुँदली किरन
ज़माँ मकाँ से परे अजनबी जज़ीरों से

दम-ए-सहर मुझे ख़्वाबों में ढूँडती आए
फ़िशार-ए-वक़्त की सरहद से दूर ले जाए

खुली जो आँख
तुलू-ए-सहर ने हँस के कहा

हिसार-ए-वक़्त से आगे कोई मक़ाम नहीं
समझ सको तो ज़मान ओ मकाँ की क़ैद नहीं

समझ सको
तो यही ज़ात बे-कराँ भी है