सहर का वक़्त है बैठा हूँ मैं फूलों की महफ़िल में
तलातुम ख़ेज़ है मौज-ए-तरन्नुम क़ुल्ज़ुम दिल में
झलकता है किसी का हुस्न फ़िरदौस-ए-नज़र बन कर
किसी के अश्क सब्ज़े पर मचलते हैं गुहर बन कर
कोई आवाज़ देता है मुझे बुलबुल के नग़्मों में
उड़ाता है कोई मेरी हँसी छुप छुप के फूलों में
किसी की आह-ए-सोज़ाँ का धुआँ गर्दूं पे रक़्साँ है
किसी का ख़ून-ए-दिल रंग-ए-शफ़क़ में जल्वा-अफ़्शाँ है
ख़मोशी बन के सर-ता-पा कोई बैठा है सौसन में
सुवैदा बन के पिन्हाँ है कोई लाले के दामन में
कोई शाख़ों में छुप कर मेरे आगे सर झुकाता है
मुझे अपनी तरफ़ शायद इशारों से बुलाता है
कोई मेरी तरफ़ नर्गिस की मस्त आँखों से तकता है
मैं क्या जानूँ वो इन पर्दों में क्या कुछ देख सकता है
कोई ज़ेर-ए-शजर सायों की परियों को नचाता है
हुआ है या कोई धीमे सुरों में गीत गाता है
कोई कोयल की कूकू में ये आहिस्ता से कहता है
तुझे जिस की तमन्ना है वो तेरे दिल में रहता है
ग़रज़ हर चीज़ में है उस के जल्वों की फ़रावानी
अयाँ है ज़र्रे ज़र्रे से उसी के रुख़ की ताबानी

नज़्म
नैरंग-ए-तसव्वुर
तख़्त सिंह