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नदी | शाही शायरी
nadi

नज़्म

नदी

गीताञ्जलि राय

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मैं नदी हूँ और मुझे फ़ख़्र है इस बात का कि मैं नदी हूँ
चलते रहना मेरी आदत है

अपने रास्ते ख़ुद बनाना आता है मुझे और अच्छा भी लगता है
मैं नहीं चाहती कि कोई एक दायरा खींच के बता दे मुझे

कि अब ता-उम्र मुझे यहीं रहना है
एक छोटा सा गोल सा महफ़ूज़ दायरा

जहाँ ना मुझे पत्थरों से टकराना होगा
ना ही अपने वजूद को क़ाएम रखने के लिए रोज़ रोज़ जंग लड़नी होगी

मेरा वजूद सिर्फ़ पानी से नहीं बना
मेरी आज़ादी मेरी हिम्मत और मेरा जुनून

ये सब मिल के बनाते हैं मुझे और मा'लूम है मुझे
कि हर-पल हर लम्हा

मैं उस मंज़िल की तरफ़ बढ़ रही हूँ
जहाँ मौत को इंतिज़ार है मेरा

फिर भी मैं धीरे नहीं चलना चाहती हूँ
बल्कि लम्हा-दर-लम्हा मेरी रफ़्तार बढ़ती जा रही है